पिछले दिनों तालकटोरा स्टेडियम
दिल्ली में हुई कांग्रेस पार्टी की अखिल भारतीय कार्यकारी समिति की बैठक में जो
निर्णय लिया गया, उसने
पर्यवेक्षकों को ही नहीं बल्कि पूरे भारतीय विपक्ष को भी हैरानी में डाल दिया है। अब
तक ऐसा लग रहा था कि एक अनुभवी राजनेता और भाजपा के
प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार यानी नरेंद्र मोदी को चुनौती देने के लिए कांग्रेस
पार्टी के 'युवराज' राहुल गांधी तैयार हैं। बेशक, राहुल गांधी को
राजनीति का कोई ख़ास अनुभव नहीं है, बेशक देश के तमाम
मुद्दों पर चुप रहने का अनुभव है, बेशक उन्हें कांग्रेस का "राजकुमार"
भी कहा जाता है, लेकिन सभी
लोग यही उम्मीद कर रहे थे कि राहुल गांधी को कांग्रेस की ओर से प्रधानमंत्री पद का
उम्मीदवार घोषित किया जाना तय है। विपक्षी नेताओं को भी ऐसा ही लग रहा था कि राहुल
गांधी को उम्मीदवार घोषित किया जाएगा और उन्हें यह कहने का एक बहुत अच्छा मौका भी
मिल जाएगा कि राहुल को "ऊपर से लादा गया" है। लेकिन, अंतिम वक्त में
पार्टी की अध्यक्षा सोनिया गांधी ने हस्तक्षेप किया और कहा कि राहुल गांधी
प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं बनेंगे। उन्होंने बैठक में तमाम अफवाहों को
विराम देते हुए राहुल गांधी को उनके दायरे को बताया या यूं कहें समझाया। अब अंतिम
निर्णय यह हुआ है कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं होंगे लेकिन
वह आगामी संसदीय चुनावों में कांग्रेस पार्टी के चुनाव अभियान का नेतृत्व ज़रूर
करेंगे।
लेकिन सवाल वही जीवंत है कि आखिर
राहुल को प्रधानमंत्री पद के तमगे से सोनिया गांधी ने
दूर क्यों रखा? दरअसल, सोनिया गांधी को
यह एहसास हो चुका है कि पिछले साल भाजपा के गोवा में हुए अधिवेशन के बाद से
नरेंद्र मोदी नाम का जो चेहरा तुफान की तरह आगे बढ़ रहा है उसमें कांग्रेस के
अच्छे—अच्छे
धुरंधर उड़ने वाले हैं। जिसका उन्होंने डेमो हाल में संपन्न हुए विधानसभा चुनावों
में भाजपा के प्रदर्शन से देख लिया है। भाजपा के 4 राज्यों की धमाकेदार जीत ने कांग्रेस के हर
चाल को बिगाड़ दिया है। तभी तो कल तक सत्ता का स्वाद चखने को आतुर राहुल गांधी आज
पार्टी में किसी भी भूमिका को लेने के लिए तैयार है। यानि पहली बार कांग्रेस अपने
आचरण के अनुकुल व्यवहार नहीं कर पा रही है। वर्ना कांग्रेसी परंपरा को टटोले तो
वंशवाद सत्ता के काफी करीब रहा है। कांग्रेस के लिए राहुल गांधी चाहें कुछ भी हों
लेकिन उनका सच कुछ और ही हैं। तभी तो कांग्रेस के घोषित युवा राहुल गांधी आज देश
के युवाओं के लिए आईकन नहीं बल्कि शर्मिंदगी बन गए हैं।
एक तर्क यह भी गढ़ा जा सकता है कि
हाल ही में कांग्रेस की सहयोगी आम आदमी पार्टी के नेता और हीरो माफिक कवि कुमार
विश्वास अमेठी में रैली के दौरान कांग्रेस
पर चुनाव लड़ने की वंशवाद और भाई-भतीजावाद परंपरा का आरोप लगाया था, तो शायद इस
वजह से अपने बेटे राहुल को लेकर सोनिया गांधी डर गई हैं। क्योंकि कांग्रेस की ओर
से अमेठी में हमेशा नेहरु-गांधी परिवार का सदस्य या उनसे जुड़ा करीबी ही चुनाव
लड़ता रहा है। यहां से संजय गांधी, राजीव गांधी, राजीव
गांधी के करीबी रहे सतीश शर्मा, सोनिया गांधी और फिर राहुल गांधी चुनाव जीतते
रहे हैं। ऐसे में सोनिया कांग्रेस को डर है कि यदि वह राहुल गांधी को पीएम
उम्मीदवार घोषित करती, तो इससे विपक्षी पार्टियों द्वारा वंशवाद का
विरोध करने का मुद्दा और गरमा जाता, उनका डर जायज भी
है। क्योंकि वंशवाद की अतिरेक कर चुकी सोनिया कांग्रेस के इस स्वार्थी कदम को जनता
माफ नहीं करती।
इस बात से भी इंकार नहीं किया जा
सकता कि कांग्रेस के पास कोई चुनावी मुद्दा बचा नहीं है। क्योंकि भाजपा ने
नरेंद्र मोदी को अपना पीएम उम्मीदवार घोषित कर लोगों के सामने उनके गुजरात के
विकास मॉडल और सुशासन का मुद्दा रख दिया है। वहीं कांग्रेस की सहयोगी 'आप' के अरविंद केजरीवाल
भ्रष्टाचार के मुद्दे पर चुनावी मैदान में उतरने वाले हैं। ऐसे में कांग्रेस के
पास ऐसा कोई मुद्दा नहीं है, जिसके बल पर वह चुनाव में राहुल गांधी को प्रस्तुत कर सके।
कांग्रेस अगर विकास को मुद्दा बनाती है, तो वह खुद विकास को लेकर विपक्षी पार्टियों के निशाने पर
है और अगर कांग्रेस भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाती है, तो यह बात सबके सामने है कि कांग्रेस के
कार्यकाल में कोयला घोटाला,
सीडब्यू्जी,
2जी घोटाला, आदर्श सोसायटी घोटाला आदि जैसे कई बड़े घोटाले हुए हैं, जिसमें कई मंत्री
भ्रष्टाचार में लिप्त पाए गए हैं। वहीं कई ऐसे भी मंत्री रहे, जिन्हें जेल की हवा
तक खानी पड़ी। पूरे कार्यकाल में यूपीए सरकार घोटालों और भ्रष्टाचार को लेकर
विवादों में रही। हालांकि समय—समय पर दंगो का हवाला देकर कांग्रेस माहौल को बदलना जरूर
चाहती है लेकिन उसके इस असफल प्रयास ने कई दफा उन्हें हार
का रास्ता दिखा दिया है।
यह भी सच है कि राहुल गांधी पार्टी
में बेशक नंबर दो की स्थिति रखते हों और सांसद हों, लेकिन उनकी सरकार में बिल्कुल भी भागीदारी
नहीं रही है। इस तरह उन्हें सरकार चलाने और उसमें शामिल होने का बिल्कुल भी अनुभव
नहीं है। हां, इतना जरूर
है कि कुछ मुद्दों पर वे सरकार की फजीहत करते नजर आए हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण
उस समय देखने को मिला जब उन्होंने दागियों को बचाने वाले अध्यादेश की कॉपी फाड़कर
फेंक दी थी, जबकि उस
अध्यादेश को कैबिनेट की मंजूरी मिल गई थी। राहुल के इस रुख से सरकार को वह
अध्यादेश वापस लेना भी पड़ा था। ऐसे में कांग्रेस राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद
की दौड़ में शामिल कर कोई जोखिम नहीं ले सकती थी। सोनिया—कांग्रेस को भी
लगता है कि राहुल के सरकार चलाने के मुद्दे मोदी के विकास के मॉडल को पीछे नहीं
छोड़ सकते हैं।
एक बात यह भी है कि कुछ समय पहले
राहुल ने पार्टी से दागी नेताओं को बाहर करने की बात कही थी, लेकिन कोई
कार्रवाई नहीं की थी। अब यदि राहुल ऐसा करते हैं, तो इससे पार्टी में
एकता की कमी का संदेश जाएगा। वहीं दूसरी ओर यह भी खबरें आती रही हैं कि वे कई
राज्यों में विभिन्न मुद्दों पर पार्टी के
नेताओं से अपनी अलग राय रखते हैं। चुनाव अभियान के दौरान उन्हें कई बार पार्टी के
वरिष्ट नेताओं से अलग बैठे देखा गया है। ऐसे में कांग्रेस को पहले यह सुनिश्चित
करना होगा कि पार्टी के सभी नेता एक हैं और वे राहुल से अलग नहीं हैं। यानि सोनिया
समझती हैं कि राहुल को 'तबे एकला चलो' के राह पर ले जाना पार्टी
और राहुल की फजीहत कराना ही होगा।
राहुल गांधी की पार्टी में भूमिका और
उनके नेतृत्वं को लेकर भी संशय बना हुआ है। कांग्रेस अभी इस बात को लेकर निश्चिंत
नहीं है कि राहुल उनके ट्रंपकार्ड हैं या नहीं। पिछले साल जिस प्रकार से राहुल
गांधी ने चुनाव प्रचार किया था, तब वे उम्मीद के मुताबिक भीड़ नहीं जुटा पाए थे और जो भीड़ आई
उसे वे पूरी तरह वोट बैंक में नहीं बदल पाए। राहुल का चुनावी अभियान न तो भाजपा का
कुछ बिगाड़ पाया और न ही भाजपा के वोट बैंक का। हद तो तब हुई जब दिल्ली में जब एक
चुनावी सभा के दौरान वहां आए लोग भी बीच से उठकर जाने लगे थे। इस मामले में उस समय
दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को लोगों से राहुल का भाषण सुनने का अनुरोध
करना पड़ा था। इन चुनावों में कांग्रेस को करारी हार का मुंह देखना पड़ा था। ऐसे
में राहुल को लेकर पार्टी का संदेह में होना स्वाभाविक है।
यानि राहुल गांधी के साथ कांग्रेस का
हाथ अब ढ़ीला पड़ता जा रहा है तभी तो समय— समय पर कांग्रेस
की कथित ब्रहमास्त्र प्रियंका गांधी राहुल गांधी को सहारा दे रही है।
हालांकि यह अलग बात है कि यह ब्रहमास्त्र उ.प्र के विधानसभा चुनाव में अमेठी, रायबरेली में कुछ
खास प्रभावी नहीं रही थी। फिर भी उनको इस्तेमाल करने में क्या जाता है? सोनिया कांग्रेस को
शायद यह भ्रम है कि प्रियंका में इंदिरा गांधी की झलक है तो ग्लैमर भी है। लेकिन
सोनिया की कांग्रेस यह भूल चुकी है कि देश की जनता एक व्यापक बदलाव की तैयारी कर
चुकी है। उसे विकास, सुशासन, धैर्य की नई
परिभाषा देने वाला अनुभवी नेता चाहिए न कि जुगाड़—पानी पर चलने वाला अति उत्साहित चेहरा।
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