यह महज संयोग ही है कि जब देश के पीएम नरेंद्र मोदी काशी के दौरे पर हैं उसी वक्त में बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में बेटियां अपने वजूद की लड़ाई लड़ रही हैं। ऐसे में सवाल है कि पीएम और यहां के सांसद मोदी का रिएक्शन क्या होना चाहिए? क्या उन्हें अपने रुट में बदलाव कर लेना चाहिए या फिर वहां जाकर बेटियों के इस मुहिम को बल देना चाहिए। BHU की लड़कियों का दर्द साधारण नहीं है। एक बार के लिए मान लेते हैं कि उनकी पीड़ा सुनने की पीएम मोदी को फुर्सत नहीं है लेकिन राज्य के सीएम योगी आदित्यनाथ भी क्यों खामोश हैं। पिछले दिनों मोदी जी ने जिस तरह ट्रिपल तलाक पर सक्रियता दिखाकर महिलाओं को न्याय दिलाया वो बेहद सराहनीय था। लेकिन इस मोर्चे पर इतना कमजोर होने की क्या जरूरत थी, ये समझ से परे है।
दरअसल, यह पहली बार नहीं है जब पीएम मोदी किसी मोर्चे पर अबूझ पहेली बने हैं। इससे पहले भी तमाम ऐसे मुद्दे हैं जिसपर उनका रिएक्शन थोड़ी देर या फिर नहीं भी आया है। मीडिया की नजर में शायद खामोशी या फिर रुट बदलना उनका 'मास्टर स्ट्रोक'हो लेकिन उनके इस रंग से लोगों के भरोसे को सेंध जरूर लग रहा है। मैंने पिछले 3 सालों में तमाम ऐसे लोगों के भरोसे में सेंध लगते देखा है जिन्हें कभी यकीं था। कुछ लोगों की नजर में आम जनता का यही भरोसा 'भक्त' की संज्ञा दे चुका है। मैं भी उन लोगों की नजर में भक्तों में से ही हूं। लेकिन सच भी यह है कि उन भक्तों के भरोसे में दरार पड़ रही है। अधिकतर विरोधियों के लिए मोदी सरकार की ज्यादा से ज्यादा नाकामी ही सुकून देती है, लेकिन जो लोग भरोसा करते हैं उनकी नजर में यह नाकामी सिर्फ एक सवाल है। ये भी जान लीजिए कि उनके लिए यह तब तक सवाल है जब तक कि इसका कोई ठोस जवाब नहीं मिल जाता है। वर्ना वो दिन भी आ जाएंगे जब मोदी सरकार की तुलना भी कांग्रेस के 'काल' से की जाने लगेगी।
आर्थिक मोर्चे पर नाकामी, महंगाई, रोजगार के अवसर की कमी, अपने कठोर फैसलों को जस्टिफाई न कर पाना, बेवजह इवेंटबाजी या बयानबाजी और न जाने क्या - क्या। ऐसे तमाम मौके आए हैं जब मोदी सरकार ने इसके परिणाम की चिंता नहीं की है। यह ठीक वैसे ही है जैसे कांग्रेस ने 2010 के बाद किया था। कम से कम भाजपा सरकार को कांग्रेस के इस रवैये का परिणाम तो याद ही होगा ।
दरअसल, यह पहली बार नहीं है जब पीएम मोदी किसी मोर्चे पर अबूझ पहेली बने हैं। इससे पहले भी तमाम ऐसे मुद्दे हैं जिसपर उनका रिएक्शन थोड़ी देर या फिर नहीं भी आया है। मीडिया की नजर में शायद खामोशी या फिर रुट बदलना उनका 'मास्टर स्ट्रोक'हो लेकिन उनके इस रंग से लोगों के भरोसे को सेंध जरूर लग रहा है। मैंने पिछले 3 सालों में तमाम ऐसे लोगों के भरोसे में सेंध लगते देखा है जिन्हें कभी यकीं था। कुछ लोगों की नजर में आम जनता का यही भरोसा 'भक्त' की संज्ञा दे चुका है। मैं भी उन लोगों की नजर में भक्तों में से ही हूं। लेकिन सच भी यह है कि उन भक्तों के भरोसे में दरार पड़ रही है। अधिकतर विरोधियों के लिए मोदी सरकार की ज्यादा से ज्यादा नाकामी ही सुकून देती है, लेकिन जो लोग भरोसा करते हैं उनकी नजर में यह नाकामी सिर्फ एक सवाल है। ये भी जान लीजिए कि उनके लिए यह तब तक सवाल है जब तक कि इसका कोई ठोस जवाब नहीं मिल जाता है। वर्ना वो दिन भी आ जाएंगे जब मोदी सरकार की तुलना भी कांग्रेस के 'काल' से की जाने लगेगी।
आर्थिक मोर्चे पर नाकामी, महंगाई, रोजगार के अवसर की कमी, अपने कठोर फैसलों को जस्टिफाई न कर पाना, बेवजह इवेंटबाजी या बयानबाजी और न जाने क्या - क्या। ऐसे तमाम मौके आए हैं जब मोदी सरकार ने इसके परिणाम की चिंता नहीं की है। यह ठीक वैसे ही है जैसे कांग्रेस ने 2010 के बाद किया था। कम से कम भाजपा सरकार को कांग्रेस के इस रवैये का परिणाम तो याद ही होगा ।