Sunday 13 September 2015

परोपकार का पाखंड

प्रतिष्ठित मैग्जीन फोर्ब्स एशिया की हीरोज ऑफ फिलेंथ्रपी यानी परोपकार के नायकों की हाल ही में जारी सूची में सात भारतीयों को भी शामिल किया गया है। भारतीयों की दानवीरता की इस प्रवृत्ति को देश में खासे गर्व के देखा जा रहा है। लेकिन हैरत की बात है कि दानवीरों की सूची में शामिल कई लोग अपनी आधी या पूरी संपत्ति दान कर देने के बावजूद शीर्षस्थ अमीरों की सूची में अपना स्थान कायम रखे हुए हैं।  सवाल  है कि संपत्ति का काफी बड़ा हिस्सा दान कर देने के बावजूद इन ‘अकिंचन’ लोगों का नाम अरबपतियों-खबरपतियों की सूची में कैसे शामिल हो जाता है? गणित के सामान्य नियम के हिसाब से  2-2=0 होता है। तो फिर यह कौन सा अर्थशास्त्र  है जिसके तहत  दो में से दो घट जाने पर भी दो बचे रहते हैं ? यह वाकई दान है या फिर खेल कुछ और है?    दरअसल, बात पुरानी है, पर बहुत नहीं। 2010 में माइक्रोसॉफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स और बर्कशायर हैथवे के प्रमुख वॉरन बफेट ने संयुक्त रूप से अभियान चलाने की पहल की - ‘द गिविंग प्लेज’ यानी दान की प्रतिबद्धता। इसके तहत दोनों उद्योगपतियों ने अपनी बड़ी संपत्ति का हिस्सा दान देने की घोषण करते हुए दूसरे उद्योगपतियों से भी ऐसा ही करने की अपील की। जाने माने निवेशक और हैथवे के मुख्य कार्यकारी वॉरन बफेट तो इस अभियान से जुड़ने से पहले ही लगभग सारी संपत्ति बिल और मलिंडा गेट्स फाउंडेशन को देने की घोषणा कर चुके थे। यहां यह बताना भी जरूरी है कि बफेट कोई छोटे-मोटे उद्योगपति नहीं हैं। उनकी कुल संपत्ति  47 अरब डॉलर से ज्यादा की है। बहरहाल, पुन: गेट्स और बफेट के संपत्ति दान करने के अभियान की ओर लौटते हैं। यह आश्चर्यजनक है कि इस अभियान को वैश्विक स्तर पर व्यापक समर्थन मिला। दुनिया के कई बड़े उद्योगपतियों ने ,जिसमें कुछ भारतीय उद्योगपति भी शामिल हैं, इसमें शिरकत पर रजामंदी जाहिर की। न्यूयॉर्क के तत्कालिन मेयर माइकल ब्लूमबर्ग, सीएनएन के संस्थापक टेड टर्नर सहित अमेरिका के करीब  40 अरबपतियों ने वादा किया कि वह अपनी संपत्ति का 50 फीसदी हिस्सा दान कर देंगे।  दुनिया हैरत में थी। वह लोग जिनके संस्थानों में वेतन और भत्तों को लेकर तमाम तरह के विरोधाभास हैं, कई जगह तो न्यूनतम वेतन को लेकर संघर्ष है, जो संस्थान अपेक्षाकृत कमजोर आर्थिक हैसियत वाले देशों में महज इसलिए आपनी शाखाएं खोलते हैं ताकि  सस्ते श्रम और ढीले कानूनों का पूरी बेदर्दी से उपभोग कर सकें। वह आखिर क्यों अपनी संपत्ति का बड़ा हिस्सा दान करने को तैयार हैं। दरअसल, खेल उतना सीधा है नहीं जितना दिखता है। ऐसा नहीं है कि इन उद्योगपतियों का एकाएक ह्दय परिवर्तन हो गया है। इनके भीतर से करुणा की धारा फूट चली है और वह दूसरों का दुख हरने के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए तैयार हो गए हैं।  खेल गहरा है। इसके न केवल आर्थिक बल्कि राजनीतिक और सांस्कृतिक पक्ष भी हैं जो हमें समझना होगा। उद्योगपतियों ने अपनी व्यक्तिगत संपत्ति का बड़ा हिस्सा दान किया है जबकि अर्थशास्त्र की बुनियादी जानकारी रखने वाला शख्स भी जानता है कि उद्योगपतियों की वास्तविक संपत्ति निजी संपत्ति नहीं होती । इनकी वास्तविक संपत्ति शेयरों और विभिन्न कंपनियों में हिस्सेदारी में है। वॉरन बफेट की ही बात करें तो उनकी संपत्ति का 99 फीसदी हिस्सा उनकी व्यक्तिगत संपत्ति से नहीं आता है। यह आता है वॉल मार्ट और गोल्डमान साक्स जैसे वित्तीय कारपोरेशनों के शेयरों से। बिल गेट्स के मामले में भी कुछ - कुछ ऐसा ही है। उनकी वास्तविक संपत्ति को लेकर ऐसा मकड़जाल है कि इसका सही आकलन करना मुश्किल हो जाता है।  तो यह है दान की महिमा की असली तस्वीर।   परोपकार के इस खेल के राजनैतिक और सामाजिक पहलू को समझना भी जरूरी है। किसी भी व्यवस्था को बचाए रखने की पहली शर्त होती है समाज में शांति और समानता। अमीर और गरीब के बीच बढ़ती असमानता के कारण इस शांति और संतोष पर आंच आने लगी है। स्मार्ट फोन वाली पीढ़ी में पनपते आक्रोश को भांपते हुए   रणनीति के तहत ही दान-पुण्य के काम किए जा रहे हैं ताकि वंचितजन मौजूदा तंत्र को अपना हितैषी समझें। यह रणनीति काफी हद तक सफल भी साबित हो रही है।  बेखबर जनता बिल गेट्स और वॉरेन बुफे की चैरिटी से चमत्कृत है, और उन्हें महान त्यागी मान रही है। लेकिन यह त्याग कितना नाकाफी है  इसे महज एक छोटे से आंकड़े से समझा जा सकता हहै।  कई साल पहले आई अर्जुन सेनगुप्ता समिति की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 84 करोड़ लोग 20 रुपये प्रतिदिन या उससे कम की आय पर जीते हैं। अगर इन सभी बेहद गरीब लोगों पर मेलिंडा एंड गेट्स फाउंडेशन समेत दुनिया के दस शीर्ष एनजीओ की ओर से जुटाई गई कुल रकम खर्च कर दी जाए तो भी कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। ज्यादा से ज्यादा प्रतिदिन की आमदनी 20 से बढ़कर 25 रुपये  हो जाएगी।

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