Sunday 16 February 2014

भारतीय लोकतंत्र का सबसे बड़ा तमाशा है संसद— दीपक कुमार

यह अजीब संयोग है कि बीते 13  फरवरी को जब लोकतंत्र के मंदिर संसद में तेलंगाना मुद्दे को लेकर एक सांसद मिर्च स्प्रे के जरिए अफरातफरी फैला रहे थे लगभग उसी समय मैं एक केबल चैनल पर मनोज बाजपेयीरवीना टंडन अभिनित फिल्म 'शूल' देख रहा था । हालांकि यह पहली बार नहीं था जब मैं 'शूल' देख रहा था, इसके पहले भी मैंने कई दफा इस फिल्म को देखी है । लेकिन पता नहीं क्यों इस बार ​फिल्म के एंड यानि अंत को देखने पर मेरे जेहन में एक अजीबोगरीब संतुष्टी मिली जिन लोगों ने इस फिल्म के अंत को नहीं देखा हो, उन्हें पहले यह बताना चाहूंगा कि फिल्म में मनोज बाजपेयी एक ईमानदार पुलिस अफसर समर प्रताप सिंह की भूमिका में हैं । लेकिन उनकी ईमानदारी बाहुबली विधायक बच्चु यादव ( सैयज शिंदे) के काले करतुतों में अड़गा डालती है, जो उसे नहीं भाता है और जाने अनजाने में समर के खुशियों और परिवार को वह तबाह कर देता है । आगे समर वही करता है जो एक विद्रोही व्यक्ति करता है, भरी विधानसभा में घुसकर बच्चू यादव की हत्या विधानसभा में मनोज बाजपेयी जो संवाद कहते हैं उसके याद आ रहे अंश निम्म हैं— “ बाहर जनता को आपसे बहुत उम्मीद है । उसने आपको चुनकर अपने सपने को साकार करने के लिए भेजा है । विनती है आपसे, इस पवित्र मंदिर की साख को बचा लीजिए  
बहरहाल विषयांतर होने से पहले मैं आपको बता दूं कि इस फिल्म का जिक्र मैंने यूं ही नहीं किया है । दरअसल, इस फिल्म की सार्थकता वर्तमान दौर में भारतीय संसद में चल रहे नुराकुश्ती को देखते हुए बढ़ जाती है । संसद में हाथापाई और मारपीट बहुत से देशों में होती है, लेकिन राजनीतिक विरोध की वजह से सांसदों के बर्ताव का जो नजारा 13 फरवरी, 2014 को भारत की संसद में दिखा है, वह अभूतपूर्व है । 13 फरवरी का दिन भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में बेहद शर्मनाक दिन के रूप में याद किया जाएगा । इस दिन संसद में सुबह से ही लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही स्थगित की जा रही थी, जब लोकसभा में केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे पृथक तेलंगाना राज्य के निर्माण के बारे में विधेयक प्रस्तुत करने जा रहे थे, तभी आंध्र प्रदेश के सांसद एल. राजगोपाल, जिन्हें एक दिन पहले ही कांग्रेस से निलंबित किया गया था, ने मिर्च पाउडर का स्प्रे करना शुरू कर दिया जिसके कारण अनेक सदस्यों को खांसी आने लगी और आंखों से पानी गिरने लगा। इसी समय तेलंगाना समर्थकों और विरोधियों के बीच हाथापाई होने लगी और तेलुगू देशम पार्टी के सांसद वेणुगोपाल ने चाकू निकाल लिया। राज्यसभा में सभापति का माइक्रोफोन उखाड़ दिया गया और वहां भी अफरातफरी मची। बाद में कई सांसदों को अस्पताल में भर्ती कराया गया। वर्तमान स्थिति यह है कि 17 लोकसभा सदस्यों को अध्यक्ष मीरा कुमार ने सदन से निलंबित कर दिया है।
इस घटना के बाद सत्तापक्ष से विपक्ष तक में निंदा करने की होड़-सी लग गयी, लेकिन क्या कोई भी दल संसद और विधानसभाओं में हंगामा करने वालों को टिकट न देने का वायदा कर सकता है? जब राजनीति में नीति, सिद्धांत और विचार की बात करने वालों के बजाय हल्ला ब्रिगेड को महत्व मिलने लगे तो सदनों की मर्यादा कैसे बची रह सकेगी? सवाल यह भी है कि जब ऐसी किसी भी स्थिति की आशंका लगातार जतायी जा रही थी, तब सरकार ने जरूरी एहतियाती कदम क्यों नहीं उठाये? ये और ऐसे ही अन्य स्वाभाविक सवाल इस धारणा को बल प्रदान करते हैं कि कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाली केंद्र सरकार की मंशा लोकसभा चुनाव से पूर्व तेलंगाना बनाना नहीं, बल्कि मुद्दे को गरमाये रख कर चुनाव में भुनाना है । शायद मुख्य विपक्षी दल भाजपा को भी चुनावी दृष्टि से वही स्थिति ज्यादा अनुकूल लगती है

यह घटना संसद के लिए अभूतपूर्व हैं, लेकिन कई राज्यों की विधानसभाओं में विधायकों के बीच मारपीट, माइक उखाड़कर उन्हें हथियारों की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश और लगातार शोर-शराबा मचाने की घटनाएं होती रही हैं । इस सिलसिले में उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश और जम्मू एवं कश्मीर की विधानसभाओं का चर्चा होना स्वाभाविक है । दरअसल, संसदीय प्रणाली में उसी पार्टी या पार्टियों के गठबंधन की चलती है जिसे पास बहुमत होता है । लेकिन शासक दल या गठबंधन को यह छूट नहीं है कि वह संसद की अनुमति के बिना सिर्फ इस आधार पर कानून बना ले कि उसके पास बहुमत है। संसद में प्रत्येक विधेयक पर बहस और विचार-विमर्श इसीलिए किया जाता है क्योंकि लोकतंत्र की बुनियाद एक-दूसरे के विचारों को सुनने-समझने और यदि जरूरत महसूस हो तो अपनाने की प्रक्रिया पर ही टिकी है । वह इस विश्वास पर टिकी है कि विचार-विमर्श और बहसों के दौरान यदि विपक्ष सत्ता पक्ष को अपनी बात समझाने में सफल हो गया तो प्रस्तावित कानून में बदलाव किया जा सकता है। अन्य मुद्दों पर भी विपक्ष सत्तापक्ष को और सत्तापक्ष विपक्ष को अपनी बात समझाने की कोशिश कर सके, इसीलिए संसदीय कार्यवाही में प्रश्न उठाने और उन पर चर्चा करने की व्यवस्था है
लेकिन पिछले अनेक वर्षों से भारतीय संसद में कार्यवाही कम होती है, कार्यवाही का स्थगन अधिक होता है। सदन का कामकाज रोक देना राजनीतिक विरोध प्रदर्शन का एक ऐसा हथियार बन गया है जिसका हर दल इस्तेमाल करता है, भले ही आम तौर पर उसके नेता इसकी आलोचना करें । राजनीतिक असहिष्णुता इतनी अधिक बढ़ गई है कि कोई भी दूसरे की राय सुनने और सुनकर बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं है। असंसदीय आचरण को अधिकाधिक राजनीतिक स्वीकृति मिलती जा रही है और राजनीतिक पार्टियों के वरिष्ठ नेता भी इस पर अंकुश लगाने के लिए कुछ करते नजर नहीं आते। अधिकांश सत्रों में प्रश्नकाल, जिसके दौरान सांसद विभिन्न विषयों के संबंध में प्रश्न पूछ सकते हैं, बिना किसी कार्यवाही के समाप्त हो जाता है। वर्तमान पंद्रहवीं लोकसभा अपने निर्धारित समय का केवल 62 प्रतिशत ही कामकाज करने के लिए इस्तेमाल कर पायी है । सदन में अध्यक्ष पद की मर्यादा और गरिमा की किसी को भी चिंता नहीं है । अध्यक्ष भी सदन को नियंत्रित और अनुशासित करने के लिए अपने अधिकार का समुचित इस्तेमाल करने से घबराते हैं। नतीजतन संसद की प्रतिष्ठा और गरिमा लगातार कम होती जा रही है। जब आम लोग चुने हुए सांसदों का ऐसा अमर्यादित, उग्र और हिंसक आचरण देखते हैं, तो उनकी निगाह में भी उनकी इज्जत कम होनी स्वभाविक है

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