Tuesday, 13 September 2016

साहेब के खौफ का भ्रम...

शहाबुद्दीन की रिहाई के कुछ ही घंटों बाद मेरे एक मित्र ने कॉल कर मुझसे पूछा, क्या सच में 'साहेब' की वापसी से सीवान सहम गया है? चूंकि मैं सीवान से हूं तो संभवतः मेरे मित्र ने मुझमें ग्राउंड रिर्पोटर जैसा कुछ देखा होगा। हालांकि मेरे लिए इस सवाल का जवाब देना मुश्किल नहीं था फिर भी बोलने से पहले काफी वक्त लिया। दरअसल, इस सवाल ने एक ही झटके में होश संभालने के बाद के उस 15 साल के काल को सामने लाकर रख दिया, जिसका मैं किसी से कभी जिक्र करना पसंद नहीं करूंगा। वो 15 साल, जिसमें मैंने हत्या और रंगदारी के रोज नए-नए किस्से सुने और हर दिन हत्या करने के तरीकों के बारे में अखबारों में पढ़ा। वो 15 साल, जिसमें मैं क्या,कोई भी शहाबुद्दीन को उनके नाम से नहीं बल्कि 'साहेब' से जानता और संबोधित करता था और अगर किसी ने गलती से शहाबुद्दीन  बोल दिया फिर तो उसकी खैर नहीं। घर वालों से लेकर बाहर वाले तक खामोश रहने की नसीहत देते रहे।  यह जितना सच है उससे कहीं अधिक सच यह है कि अब सीवान में वैसी स्थिति नहीं है। यह अलग बात है कि कुछ लोग साहेब रिहाई के  बाद भय का दंभ भर रहे हों लेकिन उन्हें भी बखूबी एहसास है कि यहां अब बच्चा- बच्चा शहाबुद्दीन को साहेब नहीं बल्कि शहाबुद्दीन को नाम से बोलने का माद्दा रखता है।  इससे भी इंकार नहीं कर सकते कि भय का माहौल अगर शहाबुद्दीन ने बनाया तो वह सिर्फ सीवान शहर तक ही सीमित था। शहाबुद्दीन इसलिए रॉबिनहुड बना क्योंकि लालू यादव जैसे स्वार्थसाधक राजनीतज्ञ की शरण में था और दूसरी खास बात उसके साथ रही कि वह  मुसलमान है।
  अगर उसके भय की बात करें तो जो लोग सीवान को जानते हैं उन्हें बखूबी पता है। सच तो यह है कि सीवान का पड़ोसी जिला गोपालंगज है और वहां कभी सतीश पांडे के आगे साहेब का 'स्पार्क' नहीं चला तो जिले में ही सुरेश चौधरी, गुड्डु पंडित, अयुब-रईस और अजय सिंह जैसों अपराधियों ने चुनौती दी। यह बात 11 साल पहले की थी ।

यह तब की बात है जब साहेब की खूब चलती थी और जंगलराज के वह मुख्य किरदार थे।  अब तो ऐसा कुछ है भी नहीं। शहाबुद्दीन का कथित आतंक भी खत्म हो चुका है। मीडिया से लेकर सोशल मीडिया की आवाज भी मुखर हो चली है। ललकारने वाले बहुत हैं।ऐसे में जो लोग यह समझ रहे हैं कि 11 साल बाद एक बार फिर से उसका भय सीवान के लोगों में आ गया है तो निश्चित ही वह भ्रम में हैं। जिन लोगों में भय का जो भ्रम है वह जितनी जल्द हो सके इस पट्टी को उतार लीजिए।     


हिंदी दिवस पर खासः सिंहासन की सीढ़ियों पर बैठी राजभाषा

गांधीजी ने हिंदी को जनमानस की भाषा कहा था, तो इसी हिंदी की खड़ी बोली को अमीर खुसरो ने अपनी भावनाओं को प्रस्तुत करने का माध्यम बनाया था, लेकिन दुर्भाग्य है कि जिस हिंदी को लेखकों ने अपनाया, जिसे स्वतंत्रता सेनानियों ने देश की शान बताया, उसे देश के संविधान में राष्ट्रभाषा नहीं, सिर्फ राजभाषा का दर्जा दिया गया। हालांकि मौजूदा दौर में हिंदी का वर्चस्व देश-विदेश में बढ़ा है। देश की राजभाषा अब धीरे-धीरे, पर दृढ़ता से, राष्ट्रभाषा के सिंहासन की सीढ़ियां चढ़ती दिख रही है..

किसी भी राष्ट्र की स्वतंत्र पहचान उसके साथ जुड़ी एक ऐसी भाषा से भी होती है, जो उस पूरे राष्ट्र में आसानी से बोली, सुनी और समझी जाती है। भारत जैसे विविध भाषा-भाषी राष्ट्र में निर्विवाद एक ऐसी भाषा, जो देश के अधिकांश हिस्सों मे बोली और समझी जाती हो और जिसे राष्ट्रभाषा का दर्जा देकर देश की स्वतंत्र पहचान से जोड़ा जाए, यह बड़ा कठिन कार्य था। 14 सितंबर 1949 को एक महत्वपूर्ण निर्णय के द्वारा देवनागरी लिपि में लिखी जानेवाली हिंदी को राजभाषा का सम्मानित दर्जा दिया गया। उस दौरान भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने संविधान सभा में 13 सितंबर, 1949 के दिन बहस में भाग लेते हुए तीन महत्वपूर्ण बातें कही थीं। पहली, किसी विदेशी भाषा को अपनाकर कोई राष्ट्र महान नहीं हो सकता।
दूसरी, कोई भी विदेशी भाषा आम लोगों की भाषा नहीं हो सकती। और तीसरी, भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाने, अपनी आत्मा को पहचाने के लिए हमें हिंदी को अपनाना चाहिए। गांधी जी ने भी हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात कही थी। 1918 में हिंदी साहित्य सम्मलेन की अध्यक्षता करते हुए गांधी जी ने कहा था कि हिंदी ही देश की राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। 1949 में जब हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया था तब तय किया गया था कि 26 जनवरी, 1965 से सिर्फ हिंदी ही भारतीय संघ की एकमात्र राजभाषा होगी। लेकिन 15 साल बीत जाने के बाद जब इसे लागू करने का समय आया तो तमिलों ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया। बकायदा 13 अक्तूबर 1957 को हिंदी विरोध दिवस के रूप में मनाया। उस समय तमिलनाडु, मद्रास, केरल और अन्य जगह हिंदी के विरुद्ध फैल रहे आंदोलन दंगों का रूप लेने पर आमादा हो गए थे। पंडित नेहरू की मृत्यु के बाद लाल बहादुर शास्त्री जब प्रधानमंत्री बने तब उन्होंने फैसला लिया कि जब तक सभी राज्य हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप मे स्वीकार नहीं करेंगे, अंग्रेजी हिंदी के साथ राजभाषा बनी रहेगी। इसका परिणाम यह निकला कि आज भी हिंदी अस्तित्व के लिए लड़ रही है। जानकार मानते हैं कि अगर आज भी पूरा हिंदुस्तान एक होकर हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए राजी हो जाए, तो संविधान में उसे यह स्थान मिल सकता है।
अमीर खुसरो की हिंदी
अमीर खुसरो ने हिंदी को अपनी मातृभाषा कहा था। इसके बाद हिंदी का प्रसार मुगलों के साम्राज्य में भी हुआ। हिंदी के प्रचार-प्रसार में संत संप्रदायों का भी विशेष योगदान रहा, जिन्होंने इस जनमानस की बोली की क्षमता और ताकत को समझते हुए अपने ज्ञान को इसी भाषा में देना सही समझा। भारतीय पुनर्जागरण के समय भी राजा राममोहन राय, केशवचंद्र सेन और महर्षि दयानंद जैसे महान सामाजिक नेताओं ने हिंदी का प्रसार किया। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हिंदी गद्य को मानक रूप प्रदान किया। महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और सुमित्रानंदन पंत जैसे रचनाकारों ने भी हिंदी का प्रसार किया।

हिंदी सिनेमा का योगदान
गीतकार गुलजार का दावा है कि हिंदी के प्रसार-प्रचार में सबसे बड़ा योगदान हिंदी सिनेमा का है। हिंदी फिल्मों की वजह से ही पूरे हिंदुस्तान में हिंदी संपर्क की भाषा मानी जाती है। अमेरिका में हिंदी पढ़ा रहीं अनिल प्रभा कुमार का कहना है कि वह अपने छात्रों को हिंदी सिखाने के लिए हिंदी गानों का सहारा लेती हैं। बताया कि कैसे वह भविष्काल पढ़ाने के लिए हिंदी गानों को इस्तेमाल करती हैं, जैसे हर दिल जा प्यार करेगा का प्रयोग होता है। इसी को एक्टिव वॉयस में पढ़ाने को वह कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है गाने का सहारा लेती हैं।

उज्ज्वल भविष्य के लिए अपनी भाषा जरूरी
महावीर प्रसाद द्विवेदी लका कहना था, ‘अपने देश, अपनी जाति का उपकार और कल्याण अपनी ही भाषा के साहित्य की उन्नति से हो सकता है।’ महात्मा गांधी का कहना रहा, ‘अपनी भाषा के ज्ञान के बिना कोई सच्चा देशभक्त नहीं बन सकता। समाज का सुधार अपनी भाषा से ही हो सकता है। हमारे व्यवहार में सफलता और उत्कृष्टता भी हमारी अपनी भाषा से ही आएगी।’ कविवर बल्लतोल कहते हैं, ‘आपका मस्तक यदि अपनी भाषा के सामने भक्ति से झुक न जाए तो फिर वह कैसे उठ सकता है।’ डॉ. जॉनसन की धारणा थी, ‘भाषा विचार की पोशाक है। भाषा सभ्यता और संस्कृति की वाहन है और उसका अंग भी।’

हिंदी मीडिया घर-घर
आज भारत में हिंदी के अखबारों की प्रसार संख्या सबसे अधिक है।  यह संख्या लगातार बढ़ती जा रही है, यानी हिंदी का अधिक प्रसार हो रहा है, इसमें कुछ हद तक विज्ञापन व बाज़ार की भी भूमिका है। आज तमाम विज्ञापन हिंदी या हिंग्लिश में जारी होते हैं, क्योंकि उपभोक्ता तो हिंदी व अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में ही सबसे अधिक हैं।  टीवी न्यूज चैनलों ने भी हिंदी को बढ़ावा दिया है। जबसे कार्टून नेटवर्क, डिस्कवरी, नेशनल ज्योग्राफिक, एनिमल प्लेनेट आदि ने अपने कार्यक्रम हिंदी में देना शुरू किए हैं, उन्हें देखनेवालों की तादाद दिन दूनी रात चौगुनी की रफ्तार से बढ़ रही है।

परदेस में हिंदी की जलवा
मॉरिशस में 1834 से बिहार के छपरा, आरा और उत्तर प्रदेश के गाजीपुर, बलिया, गोंडा आदि जिलों से कईं सैंकड़ों की तादाद में बंधुआ मजदूरों का आगमन हुआ। महात्मा गांधी जब 1901 में मॉरिशस आए तो उन्होंने भारतीयों को शिक्षा तथा राजनीतिक क्षेत्रों में सक्रिय भाग लेने के लिए प्रेरित किया। धार्मिक तथा सामाजिक संस्थाओं के उदय होने से यहां हिंदी को व्यापक बल मिला। फिजी में पांच मई 1871 में गिरमिट प्रथा के अंतर्गत आए प्रवासी भारतीयों ने इस देश को जहां अपना खून-पसीना बहाकर आबाद किया, वहीं हिंदी भाषा की ज्योति भी प्रज्जवलित की। फिजी के संविधान में हिंदी भाषा को मान्यता प्राप्त है। कोई भी व्यक्ति सरकारी कामकाज, अदालत तथा संसद में भी हिंदी भाषा का प्रयोग कर सकता है। नेपाल में हिंदी प्रेम हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए काफी है। श्रीलंका में भारत से आई हिंदी पत्र-पत्रिकाएं जैसे बाल भारती, चंदा मामा, सरिता आदि बड़े चाव से पढ़ी जाती हैं। यहां के विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाई जा रही है। संयुक्त अरब अमीरात में एफएम रेडियो के कई ऐसे चैनल हैं, जहां चौबीसों घंटे नए अथवा पुराने हिंदी गाने बजते हैं। ब्रिटेन के लंदन, कैंब्रिज तथा यार्क विश्वविद्यालयों में हिंदी पठन-पाठन की व्यवस्था है। बीबीसी से हिंदी कार्यक्रम प्रसारित होते हैं। अमेरिका में येन विश्वविद्यालय में सन 1815 से ही हिंदी की व्यवस्था है।

हिंदी का नया बाजार
यह सम्भावना जताई जा रही है कि 2017 तक भारत में इंटरनेट के उपयोगकर्ता 50 करोड़ हो जाएंगे, जिसमें से 49 करोड़ लोग मोबाइल फोन के माध्यम से इंटरनेट का उपयोग करेंगे। इस समय भारत में हर पांचवां उपयोगकर्ता हिंदी वाला है। यह हिंदी का नया बाजार है। ब्लॉगिंग, वेबसाइट्स के बाद फेसबुक, ट्विटर जैसी सोशल साइट्स ने बड़े पैमाने पर हिंदी समाज को जोड़ा, लोगों के बीच हिंदी में संवाद को संभव बनाया। सोशल मीडिया में हिंदी धीर-धीरे अपनी धाक जमाने में सफल हो रही है। इसके सकारात्मक संकेत दिखाई देने लगे हैं। इसने सबसे बड़ा मिथ यह तोड़ा है कि हिंदी में पाठक नहीं हैं। आज कईं ऐसी साहित्यिक वेबसाइट्स हैं, ब्लॉग हैं जिनकी पाठक संख्या लाखों में है। वह भी बिना किसी सनसनी के, बिना अश्लीलता परोसे। जबकि यह आम धारणा रही है कि जो मूल्यहीन साहित्य होता है, जो लोकप्रियता के मानदंडों के ऊपर आधारित होता है उसका ही बड़ा पाठक वर्ग होता है। उदाहरण के रूप में जासूसी, रूमानी साहित्य की धारा का जिक्र किया जाता रहा है। लेकिन सोशल मीडिया ने यह दिखा दिया है कि अच्छे और बुरे साहित्य के सांचे अकादमिक ही हैं. फेसबुक जैसे माध्यम हों या ब्लॉग्स, वेबसाइट्स तथाकथित गंभीर समझे जाने वाले, वैचारिक कहे जाने वाले साहित्य के लिए पाठक कम नहीं हैं बल्कि बढे़ ही हैं। यह बात कही जा सकती है कि टीवी क्रांति के दौर में जो पाठक हिंदी से जुदा हो गया था, सोशल मीडिया ने उसकी वापसी करवा दी है। यह कहना अतियशयोक्ति नहीं होगी कि तरंग पर सवार हिंदी सही मायने में आज एक गांव से उठकर वैश्विक धरातल पर पहुंच गई है।

हिंदी आती है 80 करोड़ की समझ में
दुनिया में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में हिंदी तीसरे नंबर पर है। लेकिन इसे भारतीय कूटनीति की विफलता कहें या कुछ और, हिंदी संयुक्त राष्ट्र में प्रयोग की जानी वाली 6 अधिकारिक भाषाओं में शामिल नहीं हैं। जबकि दुनिया में तकरीबन 80 करोड़ लोग इस भाषा को समझ सकते हैं। साफ तौर पर बात करने वाले लोगों का आंकडा देखे तो हिंदुस्तान में 45 करोड़ नागरिक इसी में बात करते हैं। इस भाषा की वर्णमाला में 56 अक्षर हैं, जबकि शब्दों की संख्या बहुत अधिक।



Thursday, 8 September 2016

उसके ठुमकों से टूटती हैं बेड़ियां


जब वह मंच पर ठुमके लगाती है तो पीछे बैठे 'मर्द' घूरते रहते हैं, उस पर वो पैसे सिर्फ इसलिए लुटाते हैं ताकि वह झुके और उसके स्तन का ऊपरी हिस्सा दिख सके या फिर उस ब्रा की स्ट्रिप ही दिख जाए, जिसके लिए घंटों से 'मर्द' उतावले हैं। वह जब दुपट्टा उतार कर बेफिक्र हो डांस करती है तब मोबाईल से वीडियो बनाने वाले मंच के करीब पहुंच जाते हैं। दबंग तो उसको जानबूझकर छु भी लेते हैं। जी हां, ये वो 'मर्द' हैं जो बेटियों के पैदा होने से बेहतर अपनी बीवी को बांझ रखना समझते हैं। ये वही 'मर्द' हैं जिन्हें अपने बेटे के लिए बहू आयात करनी पड़ती है। इसी समाज ने उस ठुमके लगाने वाली सपना चौधरी को जिंदगी और मौत के बीच में लाकर पटक दिया था। दरअसल, उन्हें इसका अंदाजा भी नहीं होगा कि इस बंजर जमीं पर बेड़ियां तोड़ने वाली सपना जैसी बेटियां भी पैदा होती हैं। सपना सिर्फ रागिनी गाने वाली गायिका या डांसर ही नहीं है, वह हर बेड़ियों को अपने अंदाज में तोड़ने वाली महिला भी है। सपना ने उस खोखले समाज को अपने ठुमके पर नचाया, जिसमें बुजुर्ग से लेकर बच्चे तक 'लड़की' के नाम पर हवस की लार टपका लेते हैं। सच तो यह है कि वहां के लोगों ने कभी न सपना को स्वीकारा और न ही उनके जैसी लड़कियों को, जो उनकी सोच से इतर बिंदास हो मंच पर आती हैं । जब समाज के ठेकेदारों को लग रहा था कि सपना समाज को गंदा कर रही हैं उसी दौर में उनके एक प्रशंसक ने ऐसे ही मजाक में पूछ लिया, अगर आपका पति आपको डांस करने से रोके तो क्या करेंगी? इस पर सपना ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, तब अपने पति नू छोड़ दूंगी और तुझसे ब्याह रचा लूंगी। सपना के इस जवाब ने एक ही झटके में तब उन आलोचकों को शांत कर दिया जो अब तक उनके मंच पर भड़काऊ डांस और गानों पर आंखें तो सेंक रहे थे लेकिन मुंह भी बिचका रहे थे। दरअसल, सपना को ऐसा ढोंगी समाज मंजूर नहीं है। वह अपने डांस की तरह बोल्ड और बेफिक्र रहना चाहती हैं। उन्हें यह नहीं परवाह की समाज क्या कहेगा? तभी तो एक इंटरव्यू में जब सपना से पत्रकार ने पूछा कि आप कैसी जिंदगी जीना पसंद करेंगी। इस पर उन्होंने तपाक से जवाब दिया, 'म्हारी जिंदगी का फंडा से,  जो भी अच्छा लाग्ये, करो। जो दिल नू सही लाग्ये, करो। जिंदगी का कोई भरोसा नहीं। एक-एक मिन्ट को एक-एक साल की तरह जियो। बस किसी ना दिल मत दुखाओ और अगर गलती से ऐसा हो तो माफी भी मांग लो। ' वाकई सपना ऐसी ही जिंदगी जीती आ रही हैं। जब सपना को पता चला कि उनके एक गाने से खास जाति का दिल दुख गया तब उन्होंने माफी भी मांग ली लेकिन जो समाज बेटियों को पचा नहीं पाता है वह भला सपना के माफीनामे को क्यों सुने? उनके खिलाफ कानून से लेकर सोशल मीडिया तक अभियान छेड़ा गया। मां की गाली, बहन की गाली, वेश्या  और न जाने क्या-क्या... सपना के बारे में कहा गया। जिस 'मोर' के लिए वह नाचती रहीं उसने भी सपना का साथ छोड़ दिया। वह क्या कोई भी महिला सबकुछ बर्दाश्त नहीं कर सकती है। ऐसे में उन्हें शायद आत्महत्या का रास्ता ही नजर आया। बहरहाल, उन्होंने यहाँ भी मौत को नचाया और जिन्दगी की जंग जीत ली है। उम्मीद है उन बेड़ियों को तोड़ने के लिए वो फिर तैयार हैं।

इसलिए आहत हैं लोग
सपना के रागिनी ' बावली जात चमारा की' गाने से हरिजन जाति के लोग आहत हैं। दरअसल, इसमें 'चमार' और 'बावला' शब्द का इस्तेमाल किया गया है। गांव की भाषा में चमार हरिजन को कहते हैं। जबकि बावला मतलब पागल होता है।


वह गाना भी सुन लीजिए, जो बन गई है सपना के गले की फांस



ये है सपना के लिए सभ्य समाज के लोगों के विचार
किराय की औरत अपनी ओकात भूल गई ।
-सपना पंडित कहिए चौधरी नहीं हरियाणा जाट बहुल क्षेत्र है हरियाणा में प्रसिद्ध होने तथा अपनी अश्लील हरकतो से जाटों को बदनाम करने के लिए सपना पंडित अपने नाम के साथ चौधरी शब्द लगाती है बावली जात चमारां की रागनी पंडित लखमी चंद ने बाबा भीमराव के और दलितों पिछड़े वर्ग के लोगों का अपमान करने के लिए लिखी थी इन दोनों पर मुकद्दमा दर्ज किया जाए

भददे कमेंट देखने के लिए https://www.youtube.com/watch?v=nSEe7NWlRXw लिंक के कमेंट में जाएं



यह है वह 'सॉलिड बॉडी' गाना, जिससे मशहूर हुईं सपना




इसके साथ यह जरूर पढ़ें - सबकी अपनी-अपनी भावना 

  http://deepak06154.blogspot.in/2016/01/blog-post.html

Sunday, 4 September 2016

मदर टेरेसाः एक शिक्षिका, जिंदगी सिखाने वाली


कोलकाता में ग़रीबों के लिए काम करने वाली रोमन कैथोलिक नन मदर टेरेसा को संत घोषित किया गया।  वेटिकन सिटी में उन्हें यह उपाधि मिली।
शिक्षा को पेशे के दायरे से हटकर देखा जाए तो सीखने की शुरुआत घर से होती है। मदर टेरेसा ने कोलकाता को अपना घर बनाया और 68 साल तक गरीबों और लाचार वर्ग की सेवा कर दुनिया को मानवता की शिक्षा दी। उनकी स्थापित की हुई संस्था, मिशनरीज ऑफ चैरिटी दुनिया के 123 देशों में 4500 सिस्टर के जरिए लोगों की सेवा निरंतर जारी रखे हुए है। 1910 में मैसेडोनिया के कोसोवर में जन्मीं टेरेसा 1950 में कोलकाता का रुख किया। यहां आने से पहले वह ऑटोमन, सर्बिया, बुल्गेरिया और युगोस्लाविया की नागरिक रह चुकी थीं। भारत उनका पांचवां और सबसे पसंदीदा घर बना। उन्होंने नन के पारंपरिक परिधानों से इतर नीले बॉर्डर वाली सफेद साड़ी पहनकर खुद को लोगों से जोड़ा। वह भारतीय जनमानस की नब्ज को जानती थीं। समझती थीं कि कोलकाता भी उन्हें तभी अपनाएगा, जब वह इसे अपनाएंगी। टेरेसा की संस्था ने यहां कई आश्रम, गरीबों के लिए रसोई, स्कूल, कुष्ठ रोगियों के लिए बस्ती, अनाथों के लिए घर आदि बनवाए। उनके आलोचक भी कम नहीं थे। गंदी बस्तियों में सेवा करने के कारण पश्चिमी जनमानस ने उन्हें ‘गटर की संत’ तक कहा था, लेकिन वह कहतीं थीं कि जख्म भरने वाले हाथ प्रार्थना करने वाले होंठ से कहीं पवित्र होते हैं। दुनिया का सर्वोच्च सम्मान नोबेल शांति पुरस्कार, भारत का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न और दुनिया के ढेरों अवॉर्ड पाकर भी 1997 में उन्होंने कोलकाता में ही आखिरी सांस ली। 1979 में जब टेरेसा नोबेल का शांति पुरस्कार लेकर देश लौटी थीं तो तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने कहा था आजतक आप भारत की मां थीं और अब पूरी दुनिया की मां बन गई हैं, जो आपसे जिंदगी जीने की शिक्षा लेगी।  मदर टेरेसा का व्यक्तित्व इतना प्रभावी था कि पोप जॉन पॉल द्वितीय भी उनके मुरीद थे। वैसे वह उनके अच्छे दोस्त भी थे। टेरेसा की मौत के बाद उन्हें संत घोषित करने की प्रक्रिया को पोप ने तेजी से पूरा करवाया। वेटिकन की नजर में संत की उपाधि उसे ही दी जाती है, जिसके दो चमत्कारों की पुष्टि हो जाए। टेरेसा की मौत के पांच साल बाद उनका पहला चमत्कार स्वीकार किया गया था। एक बंगाली आदिवासी महिला मोनिका बेसरा के पेट का अल्सर तब ठीक होने का दावा किया गया, जब उसके पेट पर टेरेसा की तस्वीर रखी गई। इसके बाद ब्राजील के एक व्यक्ति ने अपनी दिमागी बीमारी के टेरेसा के चमत्कार से ठीक होने की बात स्वीकार की। आखिरकार पोप फ्रांसिस ने टेरेसा को संत की उपाधि देने का निर्णय लिया।   

विज्ञान पर आस्था की जीत
वेटिकन के अनुसार साल 2002 में मदर टेरेसा से प्रार्थना करने के बाद एक भारतीय महिला मोनिका बेसरा के पेट का ट्यूमर चमत्कारिक ढंग से ठीक हो गया था। इसी तरह वेटिकन ने टेरेसा से जुड़े एक और चमत्कार की पुष्टि की थी। 2008 में ब्राज़ील की एक महिला का ब्रेन ट्यूमर ठीक हो गया। इसे पोप फ्रांसिस ने मदर टेरेसा के दूसरे चमत्कार के रूप में मान्यता दे दी. इसके बाद अगले साल यानी साल 2009 में उन्हें संत बनाए जाने का रास्ता साफ़ हो गया था।

Friday, 2 September 2016

यही हाल रहा तो कंधे पर कई और जिंदगियां दम तोड़ेंगी


बीते दो हफ्तों में देश के अलग-अलग इलाकों से मानवता को शर्मसार कर देने वाली तस्वीरें सामने आईं। फिर चाहे वह ओडिशा के कालाहांडी में पत्नी की लाश को कंधे पर रखकर मीलों चलने वाला माझी हो या कानपुर में इलाज के लिए बेटे को कंधे पर रखकर एक अस्पताल से दूसरे तक दौड़ता पिता। देश में स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली और खत्म होती इंसानियत खुलकर सामने आई। आंकड़े तो और भी भयावहता दिखाते हैं। 


- 01 हजार लोगों पर एक डॉक्टर होना चाहिए डब्ल्यूएचओ के मानकों के अनुसार, लेकिन भारत में 03 हजार लोगों पर एक है।
- 14 लाख डॉक्टरों की कमी है देश में। यह संख्या आगे और बढ़ेगी क्योंकि हर साल सिर्फ 5500 डॉक्टर ही तैयार हो पा रहे हैं।
- 50 फीसदी डॉक्टरों की कमी है सर्जरी, स्त्री रोग और शिशु रोग जैसे चिकित्सा के बुनियादी क्षेत्रों में। 
- 82 फीसदी सर्जरी, स्त्री रोग और शिशु रोग के डॉक्टरों की कमी है देश के ग्रामीण क्षेत्रों में।

विदेशों में नौकरी की चाहत
- 56 हजार भारतीय डॉक्टर विदेशों में कार्यरत थे साल 2000 में। 2010 में यह संख्या 55 फीसदी बढ़कर 86,680 पहुंच गई।
- 60 फीसदी भारतीय डॉक्टर सिर्फ अमेरिका में ही सेवाएं दे रहे हैं। दुनिया में सबसे ज्यादा भारतीय डॉक्टर विदेशों में कार्यरत हैं।

मेडिकल कॉलेजों का हाल
- 412 मेडिकल कॉलेज हैं इस समय देश में। 45 फीसदी सरकारी और 55 प्रतिशत प्राइवेट।
- 640 जिलों में से देश के 193 जिलों में ही मेडिकल कॉलेज हैं।
- 447 जिलों में चिकित्सा की पढ़ाई के लिए कोई बुनियादी व्यवस्था नहीं है।
- 02 करोड़ रुपये तक पहुंच चुका है प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में दाखिले का डोनेशन।

बेहिसाब बढ़ा स्वास्थ्य खर्च
- 1947 से 2015 के बीच प्राइवेट अस्पतालों में 93 फीसदी महंगा हुआ इलाज।
- 58 फीसदी ग्रामीण और 68 फीसदी शहरी जनता प्राइवेट अस्पतालों में इलाज को मजबूर।
- 3.9 करोड़ लोग हर साल बीमारी पर होने वाले बेहिसाब खर्च से गरीबी में चले जाते हैं।

- सरकार की मंशा भी कमजोर
- 04 फीसदी खर्च करती है भारत सरकार अपने राष्ट्रीय बजट का स्वास्थ्य के क्षेत्र में। अमेरिका 18 फीसदी खर्च करता है। 

स्रोत: विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ), राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, एसोचैम, इंटरनेशनल माइग्रेशन आउटलुक  2015

Monday, 22 August 2016

दुश्मन ने दिखाया आईना

आखिरकार रियो ओलंपिक से भारत की विदाई मेडल के साथ हो ही गई है। पूरा देश खुशी में डूबा है,  यह और बात है कि जितने मेडल हमें मिले हैं उससे अधिक जमैका के धावक उसैन बोल्ट अकेले ही लेकर स्वदेश लौटे हैं। वहीं अमेरिकी तैराक माइकल फेलेप्स की बात करें तो भारत के ओलंपिक इतिहास को ही खंगालना पड़ेगा।  बहरहाल, भारत और फेल्प्स की इस तुलना को यहीं रोकते हुए हमें साक्षी मलिक का शुक्रिया अदा करना चाहिए। 58 किलो वर्ग कुश्ती में कांस्य पदक जीतने वाली इस 'हरियाणा की शेरनी' ने हमें 1992 के बार्सिलोना ओलंपिक वाली शर्मिंदगी से बचा लिया, जहां से हम बिना मेडल के वापस आए थे। मलिक के मेडल के बाद तो बैडमिंटन की सनसनी पीवी सिंधू का मेडल हमारे लिए बोनस जैसा लगने लगा है। लेकिन इन सबके बीच में हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि हमारे देश की आबादी दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी है और दुनिया ये सवाल पूछ रही है कि 132 करोड़ लोगों के देश में मेडल का ऐसा अकाल क्यों पड़ा हुआ है?  ये कहानी किसी एक ओलंपिक की नहीं है, बल्कि ये हर बार की पीड़ा है, हर बार का दर्द है। इस बार हमारे 118 एथलीट ओलंपिक के लिए रवाना हुए थे लेकिन जैसे-जैसे दिन निकलते गए, दिल बैठता गया और आखिरी दिनों में सभी ने पदक की उम्मीदें छोड़ दी थीं। बहरहाल, सबसे बड़ा सवाल है कि जो खिलाड़ी ओलंपिक के अलावा दूसरी जगहों पर अच्छा प्रदर्शन करते रहे हैं वो अगर ओलंपिक में नहीं खेल पा रहे हैं तो इसकी वजह क्या हैं? हमारे देश में मंथन हो, इससे पहले चीन ने इस बदहाली का विश्लेषण कर लिया है।  चीन के मीडिया ने भारत को पदक न मिलने के जो कारण बताए हैं उनके मुताबिक भारतीय खिलाड़ियों को सरकार उचित संसाधन नहीं दे रही है। जिससे खिलाड़ी बेहतर अभ्यास न कर पाने के कारण एथलेटिक्स जैसे खेलों में आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। इस तथ्य को मजबूती तब मिलती है जब दूतीचंद जैसी एथलीट को रियो रवाना होने से पहले जूते के लिए गुहार लगानी पड़ती है तो बॉक्सर मनोज को प्रमोशन के लिए राजनेताओं के दरवाजे खटखटाने पड़ते हैं। खेलों पर सरकारें कितना ध्यान देती हैं इसकी बानगी आंकड़े बताते हैं।  एक आंकड़े के मुताबिक भारत ने चार साल पर आने वाले ओलंपिक की तैयारियों पर 120 करोड़ रुपये खर्च किए हैं। जबकि बेंगलुरू के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस पर इस साल 120 करोड़ रुपये और इग्नू पर 107 करोड़ रुपये एक साल में खर्च किए गए हैं। यानी सरकार का खेलों से ज्यादा जोर पढ़ाई पर है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में राज्य और केन्द्र सरकारें मिलकर एक एथलीट पर प्रतिदिन सिर्फ तीन पैसे खर्च करती हैं। जबकि अमेरिका अपने हर खिलाड़ी पर एक दिन में 22 रुपये खर्च करता है। इसी तरह इंग्लैंड रोज 50 पैसे हर खिलाड़ी पर खर्च करता है और जमैका जैसा गरीब देश भी अपने खिलाड़ियों पर 19 पैसे खर्च करता है। चीन की मीडिया ने भारतीय युवाओं की सेहत पर भी सवाल खड़े किए हैं। उसका कहना है कि भारतीय युवा स्वास्थ्य मानकों को लेकर जागरूक नहीं हैं। शारीरिक कमजोरियों के कारण वह बाजुओं के दमखम वाले खेलों में विदेशी खिलाड़ियों का मुकाबला नहीं कर पाते। काफी हद तक यह बात भी सही है क्योंकि हमारे देश में फास्ट फूड एक स्टेटस सिंबल माना जाता है और पैदल चलना, दौड़ना और भागना एक अजूबे की तरह देखा जाता है। चीनी मीडिया का कहना है कि भारतीय लोग लड़कियों को लेकर आज भी प्रगतिवादी सोच नहीं रखते।  इस कड़वी सच्चाई को हरियाणा के आंकड़े से समझ सकते हैं। यह कांस्य पदक लेने वाली साक्षी मलिक का गृह राज्य है लेकिन यह कुख्याात है उस मानसिकता के लिए जो बेटों को बेटियों से ज्यादा तरजीह देती है।

2011 की जनगणना के आंकड़े इस बात का सबूत देते हैं (1000 लड़कों पर सिर्फ 879 लड़कियां)। हालात इतने बिगड़ गए हैं कि हरियाणा में लड़कों की शादी के लिए दूसरे राज्यों ही नहीं, दूसरे देशों से दुल्हनें लानी पड़ रही हैं। चीन ने ये विश्लेषण भी किया है कि भारतीय माता-पिता बच्चों के कैरियर के मामले में आज भी ज्यादा विकल्प नहीं रखते। वह परंपरागत रूप से डॉक्टर और इंजीनियर के अलावा अन्य विकल्पों के बारे में ज्यादा नहीं सोचते। चीन ने भारत की इस परफॉर्मेंस के लिए एक कारण क्रिकेट और गरीबी को भी बताया है। आईपीएल में जहां युवराज सिंह जैसे खिलाड़ी को 16 करोड़ रुपये एक सीजन के लिए मिल जाते हैं वहीं हॉकी में श्रीजेश जैसे बड़े स्टार दो साल में इतनी कमाई कर पाते हैं। चीन की मीडिया ने भारत में स्टेडियम और पार्क की कमियों को भी रेखांकित किया है। बहरहाल, भारत के खेलों की ये समीक्षा भले ही चीन ने की हो, लेकिन चीन के मीडिया के इस विश्लेषण में दम तो है। कई बार खुद में सुधार करने के लिए सामने खड़े दुश्मन की बात भी ध्यान से सुननी चाहिए ताकि अपने अंदर सुधार किए जा सकें।

Thursday, 18 August 2016

ये मेडल नहीं, अपमान है

रियो ओलंपिक में साक्षी मलिक और पीवी सिंधू के मेडल के साथ भारत का खाता खुला, इससे क्या आप खुश हैं? अगर हां, तो आप रहिए खुश, यही आपकी नियति है। साक्षी मलिक और पीवी सिंधू  ने पदक दिलाया, यह उनकी व्यक्तिगत लगन है और उसकी सराहना होनी चाहिए लेकिन ऐसा भी नहीं है कि हम उन्हें देश की 'शान' मानने की गलती कर बैठे। साक्षी मलिक और पीवी सिंधू  की सराहना होनी चाहिए तो सिर्फ इसलिए कि उन्होंने जाते जाते पदक तालिक में भारत का नाम अंकित करा दिया और खत्म हो चुके सपनों को अगले ओलंपिक तक के लिए फिर से जगा दिया। अब आप बुनते रहिए सपने, गिनते रहिए अगले ओलंपिक के मेडल। अगर साक्षी मलिक और पीवी सिंधू  के मेडल को देखकर सुकून की निंद्रा में हैं तो जाग जाइए क्योंकि यह मेडल नहीं अपमान है। यह अपमान है, देश की 125 करोड़ की आबादी के भरोसे का। यह धोखा है, करोड़ों रुपये खर्च करने वाली सरकारों के साथ। अगर खिलाड़ियों के लिए हमदर्दी है तो आप दोष सिस्टम को भी दे लीजिए  लेकिन मुझे ताो शर्म आती है उन खिलाड़ियों पर जिन्होंने रियो के खेल सागर में भारत की साख को डूबोया है। 118 एथलीट्स की फौज को रियो भेजते वक्त हमारे प्रधानमंत्री ने भरोसे के साथ कहा था कि हर खिलाड़ी पर डेढ़ करोड़ खर्च किया गया है और इस बार पुराने सारे रिकॉर्ड टूटेंगे। साईं की रिपोर्ट में भी भारत को रियो ओलंपिक में 12 से 19 मेडल मिलने का सपना दिखाया गया था। लेकिन जैसे-जैसे दिन निकलते गए, दिल बैठता गया और अब आलम ये है कि पेस, सानिय, जीतू और साइना जैसे दिग्गजों की मौजूदगी के बावजूद हम ओलंपिक के आखिरी दिनों में तांबे और चांदी का एक-एक मेडल लिए घूम रहे हैं।  दुनिया के सबसे अनुभवी टेनिस स्टारों में से एक पेस से बहुत उम्मीद थी लेकिन वह लड़े तो सिर्फ कमरे के लिए, मेडल के लिए नहीं। वहीं सानिया की बात करें तो, खेल से ज्यादा पोकोमॉन गो गेम और सोशल मीडिया पर समय बिताने में व्यस्त थीं। हॉकी खिलाड़ी तो मानों रियो, पदक के लिए नहीं बल्कि किट के लिए गए थे। बॉक्सर विकास ने तो स्वीकार कर ही लिया कि मैं क्वार्टर फाइनल में ही अपना सौ फीसदी दे चुका हूं, अब और नहीं हो सकता। दीपा के प्रदर्शन से खुशी जरूर मिली लेकिन 'चूक' तो हम यहां भी गए। अबकी स्थिति यह रही कि बीजिंग ओलंपिक में गोल्ड मेडल जीतने वाले अभिनव बिंद्रा जब आठ साल बाद चौथे पोजीशन पर आए तो हम आहें भरते रहे और ये कहकर अपने दिल को तसल्ली देते रहे कि पदक आते-आते रह गया। लेकिन कड़वी सच्चाई यह है कि पदक आते-आते नहीं रह गया बल्कि हमारे एथलीट दुनिया के टॉप एथलीटों के सामने इतने बौने हैं कि वह पोडियम तक पहुंच ही नहीं पाते।  सवाल है कि जो खिलाड़ी ओलंपिक के अलावा दूसरी जगहों पर अच्छा प्रदर्शन करते रहे हैं वो अगर ओलंपिक में नहीं खेल पा रहे हैं तो इसकी वजह क्या हैं? रियो में जीतू जैसे कई अच्छे खिलाड़ी भी दबाव में खेलते नजर आए। एक अनुमान के मुताबिक सरकार ने ओलंपिक की तैयारियों के लिए सौ करोड़ से ज्यादा रुपये खर्च किए लेकिन नतीजा क्या निकला हमारे सामने है। कुल आंकड़ों पर गौर करें तो 116 साल के ओलंपिक इतिहास में रियो से पहले भारत ने 23 ओलंपिक में हिस्सा लेकर कुल 26 मेडल हासिल किए। यानी औसत निकाले तो हर ओलंपिक में सवा मेडल भी नहीं बनता। वहीं दूसरी तरफ अमेरिका के तैराक माइकल फेलप्स अकेले ही 28 ओलंपिक मेडल जीत चुके हैं जिसमें 23 गोल्ड मेडल शामिल हैं। ये आंकड़े बताने के लिए काफी है कि हमारे एथलीट खेलों के इस महाकुंभ में अन्य देशों के खिलाड़ियों से कितना कम दमखम दिखा पाते हैं।

      अब तो आलम यह है कि पदक के लिए हम खिलाड़ियों से ज्यादा भगवान पर भरोसा करते हैं। आबादी के नए रिकॉर्ड को छूने वाले हमारे देश में ओलंपिक कांस्य पदक जीतने के लिए भी लोग पूजा-पाठ पर बैठ जाते हैं। नतीजा यह होता है कि हम कांस्य से भी 'चूक' जाते हैं।  वहीं अमेरिका और चीन जैसे देश अपने खिलाड़ियों को लेकर निश्चिंत होते हैं कि वह तीन पदकों में से कोई एक तो आसानी से हथिया ही लेंगे क्योंकि उनका हर खिलाड़ी गोल्ड पाने के लिए जी-जान लगा देता है।  जिस देश में सोना और सम्मान को जान से भी ज्यादा प्यार किया जाता हो वहां मेडल के इस सूखे पर अगर शोभा डे जैसे लोगों का गुस्सा फूटता है तो वह स्वाभाविक सा लगता है।  बहरहाल, अगर इक्के-दुक्के मेडल हाथ लग भी गए तो इस पर इतराने की जरूरत नहीं है बल्कि पूरा देश ये सोचे कि इतने बड़े देश में खिलाड़ी खेल के साथ अपमान क्यों कर रहे हैं?